Account of Sin and Virtue.पाप और पुण्य का हिसाब किताब।
Account of Sin and Virtue.
1.When one imparts education to others, performs sacrifices (yajnas), and eats in the same line with others, one receives one-fourth of the virtues and sins of others.
2.By sitting in the same seat, traveling in the same vehicle, and touching through breath, a person becomes a partner in one-sixth of the virtues and sins of others.
3.Through the touch, words, and praise of another person, one always gains one-tenth of their virtues and sins.
4.By seeing, hearing, and thinking about someone, a person receives one-hundredth of the virtues and sins of others.
5.The one who falsely criticizes others, gossips, and unjustly rebukes, hates, and insults others, takes upon themselves the sins committed by them and in return gives their virtues to them.
6.If someone serves a virtuous person and is not their spouse, servant, or disciple, and if they are not paid for their service, they receive a portion of that virtuous person's merit according to their service.
7.By touching or speaking to others while bathing or performing prayers (Sandhya), one gives one-sixth of the virtue generated from those actions to others.
8.When a person asks for money for religious purposes from someone else, the donor also receives the result of their good deeds along with the recipient.
9.If a person steals someone else's wealth and uses it for a virtuous act, the thief becomes a partaker of the sin, while the one whose wealth was stolen enjoys the merit.
10.If a person dies without repaying a debt, the wealthy person receives a portion of that individual's virtue proportional to their wealth.
11.Those who give advice, approve, provide resources, and offer strength and capability for a task, receive one-sixth of the virtue and sin of that task.
12.Rulers share one-sixth of the virtues and sins of their subjects.
13.Teachers receive one-sixth of the virtues and sins from their disciples, husbands from their wives, and fathers from their sons.
14.If a person skips someone while serving food to those sitting in a row, the skipped person receives one-sixth of the server’s virtues.
Karma is the Supreme Duty.
According to the Chandogya Upanishad, those who, through their discovered knowledge/skills (such as inventing new things, devices, or subjects, innovating technology, processing, etc.), contribute to the welfare of life and humanity are considered the highest/first-class righteous people. After their death, they attain the status of Brahmins (wise ones) in the realm of the gods. Therefore, it is said that karma (action) is the supreme duty.
पाप और पुण्य हिंदू धर्म और भारतीय दर्शन में नैतिकता और कर्म के दो महत्वपूर्ण पहलू हैं। इनका संदर्भ अक्सर जीवन के नैतिक और धर्मिक दृष्टिकोण से होता है।
पाप:-
पाप का अर्थ है वह कर्म जो नैतिक या धर्मिक दृष्टि से अनुचित, अनैतिक, या गलत माना जाता है। पाप को ऐसे कार्यों के रूप में देखा जाता है जो दूसरों को नुकसान पहुंचाते हैं, समाज के नियमों का उल्लंघन करते हैं, या जो व्यक्ति के आत्मिक विकास में बाधा डालते हैं। पाप के परिणामस्वरूप व्यक्ति को दुःख, अशांति, और अगले जन्मों में कष्टों का सामना करना पड़ सकता है।
उदाहराण स्वरूप: झूठ बोलना, चोरी करना, हिंसा करना, या किसी का अहित करना।
पुण्य:-
पुण्य का अर्थ है वह कर्म जो नैतिक, धर्मिक, और सद्गुणपूर्ण होते हैं। पुण्य कार्य से व्यक्ति के आत्मिक उन्नति होती है, जीवन में सुख-शांति और समृद्धि आती है, और अगले जन्मों में अच्छा फल प्राप्त होता है। पुण्य कार्यों को समाज के कल्याण और व्यक्ति के आत्मिक विकास के लिए आवश्यक माना जाता है।
उदाहराण स्वरूप: सत्य बोलना, दान देना, दूसरों की सेवा करना, और अहिंसा का पालन करना।
हिंदू दर्शन में यह माना जाता है कि व्यक्ति के कर्म (अच्छे या बुरे) उसके जीवन और पुनर्जन्म को प्रभावित करते हैं। पाप और पुण्य की अवधारणा इस बात पर जोर देती है कि व्यक्ति को अपने कार्यों के परिणामों के प्रति जागरूक और उत्तरदायी होना चाहिए।
पाप और पुण्य का हिसाब किताब।
1.दूसरों को शिक्षा देने, यज्ञ कराने और दूसरों के साथ एक पंक्ति में बैठकर भोजन करने पर व्यक्ति दूसरों के किए हुए पुण्य और पाप का चौथाई भाग प्राप्त करता है।
2.एक ही स्थान पर बैठने, एक ही वाहन में यात्रा करने और सांस-प्रश्वास के माध्यम से शरीर के संपर्क में आने पर व्यक्ति दूसरों के पुण्य और पाप का छठा भाग प्राप्त करता है।
3.दूसरों के स्पर्श, बातचीत और प्रशंसा के माध्यम से व्यक्ति हमेशा उनके पुण्य और पाप का दसवां भाग प्राप्त करता है।
4.किसी को देखना, उसकी बातें सुनना और उसके बारे में सोचना, व्यक्ति को दूसरों के पुण्य और पाप का सौवां भाग देता है।
5.जो झूठ-मूठ दूसरों की निंदा करता है, परनिंदा करता है और दूसरों को झूठे तिरस्कार, घृणा और अपमान करता है, वह उनके द्वारा किए गए पाप को अपने ऊपर ले लेता है और इसके बदले में उन्हें अपना पुण्य देता है।
6.जो व्यक्ति किसी पुण्यवान व्यक्ति की सेवा करता है और अगर वह उसकी पत्नी, सेवक या शिष्य नहीं है और उसे उसकी सेवा के बदले कोई धन नहीं दिया जाता है, तो वह उसकी सेवा के अनुसार उस पुण्यवान व्यक्ति के पुण्य का भाग प्राप्त करता है।
7.जो व्यक्ति स्नान और संध्या (ईश्वर की पूजा) आदि करते समय दूसरों को छूता है या उनसे बात करता है, वह अपने उस कर्म से उत्पन्न पुण्य का छठा भाग उन्हें दे देता है।
8.जो व्यक्ति दूसरों के पास जाकर धर्म के उद्देश्य से धन मांगता है, तो उस व्यक्ति के साथ धनदाता भी अपने पुण्य के फल को पाता है।
9.जो व्यक्ति दूसरों की संपत्ति चुराता है और उससे पुण्य कार्य करता है, वह चोर पाप का भागी होता है और जिसकी संपत्ति चुराई गई है, वह उस पुण्य का फल भोगता है।
10.यदि कोई व्यक्ति बिना ऋण चुकाए मर जाता है, तो धनी व्यक्ति उसकी संपत्ति के साथ अनुपात में उस व्यक्ति के पुण्य का हिस्सा प्राप्त करता है।
11.किसी कार्य में जो व्यक्ति बुद्धि (सलाह) देता है, अनुमोदन करता है, संपत्ति प्रदान करता है और शक्ति और सामर्थ्य प्रदान करता है, वह उस कार्य के पुण्य और पाप का छठा भाग प्राप्त करता है।
12.शासक अपने प्रजाजनों के पुण्य और पाप का छठा भाग पाता है।
13.शिक्षक अपने शिष्य से, पति अपनी पत्नी से और पिता अपने पुत्र से पुण्य और पाप का छठा भाग प्राप्त करता है।
14.जो व्यक्ति पंक्तिबद्ध बैठे व्यक्तियों को भोजन परोसते समय किसी को भोजन दिए बिना छोड़कर आगे बढ़ जाता है, वह व्यक्ति अपने पुण्य का छठा भाग छोड़े गए व्यक्ति को देता है।
कर्म ही परम धर्म है।
छांदोग्य उपनिषद के अनुसार वे लोग जो अपने आविष्कृत (कोई नया प्रकार की वस्तु, यंत्र या विषय निर्माण, तकनीक का आविष्कार, प्रसंस्करण आदि) ज्ञान/विद्या के द्वारा जीवन एवं मानव कल्याण करते हैं, वे सबसे उत्कृष्ट/प्रथम श्रेणी के धार्मिक व्यक्ति हैं और अपनी मृत्यु के बाद वे देव लोक में ब्राह्मण (ज्ञानी) पद प्राप्त करते हैं। इसलिए कहा गया है कि कर्म ही परम धर्म है।