The Bhagavad Gita in 10 slokas

 The Bhagavad Gita, often referred to simply as the Gita, is a 700-verse Hindu scripture that is part of the Indian epic Mahabharata. It is a conversation between the prince Arjuna and the God Krishna, who serves as his charioteer. The Gita is set in the midst of the battlefield of Kurukshetra, where Arjuna is filled with doubt and moral dilemma about fighting in the battle.


The gist of the Bhagavad Gita can be summarized as follows:


1.Dharma and Duty: Krishna emphasizes the importance of fulfilling one's duty (dharma) without attachment to the results. Arjuna, as a warrior, is duty-bound to fight for righteousness.


2.Self-Realization: Krishna teaches Arjuna about the nature of the self (Atman) and the ultimate goal of life, which is self-realization or union with the divine (Brahma).


3.Detachment: Krishna advises Arjuna to perform his duty without attachment to success or failure, pleasure or pain. Detachment from the fruits of actions leads to freedom from suffering.


4.Yoga: The Gita outlines different paths of yoga including Karma Yoga (path of selfless action), Bhakti Yoga (path of devotion), and Jnana Yoga (path of knowledge). Each path leads to the same ultimate goal of self-realization.


5.Unity of Existence: Krishna teaches Arjuna that the entire universe is interconnected and that all beings are manifestations of the same divine essence. Therefore, one should see the self in all beings and treat them with compassion and equality.


6.Importance of Faith: Krishna emphasizes the importance of faith and surrender to the divine will. Arjuna is encouraged to have faith in Krishna's guidance and to surrender his ego.


7.Renunciation and Action: The Gita reconciles the seemingly conflicting ideas of renunciation and action by teaching that true renunciation is not abstaining from action but performing one's duty without attachment.


8.Immortality of the Soul: Krishna assures Arjuna of the immortality of the soul, which transcends birth and death. The body is temporary, but the soul is eternal.


Overall, the Bhagavad Gita serves as a guide to living a righteous life, fulfilling one's duties with dedication, and attaining spiritual wisdom and liberation. It addresses the fundamental questions of human existence and provides timeless teachings on morality, ethics, and spirituality.



 Here are 10 famous verses (slokas) from the Bhagavad Gita:

Chapter 9, Verse 7-8:

सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्। 

कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम् ।7।

प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुन: पुन:। 

भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्। 8।

हे कुन्ती पुत्र! एक कल्प के अन्त में सभी प्राणी मेरी आदि प्राकृत शक्ति में विलीन हो जाते हैं और अगली सृष्टि के प्रारंभ में, मैं उन्हें पुनः प्रकट कर देता हूँ। प्राकृत शक्ति का अध्यक्ष होने के कारण मैं बारम्बार असंख्य योनियों के जीवों को उनकी प्रकृति के प्रभाव के अनुसार पुनः-पुनः उत्पन्न करता हूँ।

Bhagavad Gita: Chapter 6, Verse 1

अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः ।

स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ॥

 वे मनुष्य जो कर्मफल की कामना से रहित होकर अपने नियत कर्मों का पालन करते हैं वे वास्तव में संन्यासी और योगी होते हैं, न कि वे जो अग्निहोत्र यज्ञ संपन्न नहीं करते अर्थात अग्नि नहीं जलाते और शारीरिक कर्म नहीं करते। 

BG 9.7-8:

sarva-bhūtāni kaunteya prakṛitiṁ yānti māmikām

kalpa-kṣhaye punas tāni kalpādau visṛijāmyaham

prakṛitiṁ svām avaṣhṭabhya visṛijāmi punaḥ punaḥ

bhūta-grāmam imaṁ kṛitsnam avaśhaṁ prakṛiter vaśhāt.

At the end of one kalp, all living beings merge into My primordial material energy. At the beginning of the next creation, O son of Kunti, I manifest them again. Presiding over My material energy, I generate these myriad forms again and again, in accordance with the force of their natures.

Chapter 2, Verse 13:

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।

तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति॥

जैसे देहधारी आत्मा इस शरीर में बाल्यावस्था से तरुणावस्था और वृद्धावस्था की ओर निरन्तर अग्रसर होती है, वैसे ही मृत्यु के समय आत्मा दूसरे शरीर में चली जाती है। बुद्धिमान मनुष्य ऐसे परिवर्तन से मोहित नहीं होते।

Translation: Just as the boyhood, youth, and old age come to the embodied Soul in this body, in the same manner, is the attaining of another body; the wise man is not deluded at that.


Chapter 2, Verse 14:

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।

आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत॥

हे कुन्तीपुत्र! इन्द्रिय और उसके विषयों के संपर्क से उत्पन्न सुख तथा दुख का अनुभव क्षण भंगुर है। ये स्थायी न होकर सर्दी तथा गर्मी की ऋतुओं के आने-जाने के समान हैं। हे भरतवंशी! मनुष्य को चाहिए कि वह विचलित हुए बिना उनको सहन करना सीखे।

Translation : O son of Kunti, the contact between the senses and the sense objects gives rise to fleeting perceptions of happiness and distress. These are non-permanent, and come and go like the winter and summer seasons. O descendent of Bharat, one must learn to tolerate them without being disturbed.

Chapter 2, Verse 47:

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन |

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥

तुम्हें अपने निश्चित कर्मों का पालन करने का अधिकार है लेकिन तुम अपने कर्मों का फल प्राप्त करने के अधिकारी नहीं हो, तुम स्वयं को अपने कर्मों के फलों का कारण मत मानो और न ही अकर्मा रहने में आसक्ति रखो।

Translation: You have a right to perform your prescribed duties, but you are not entitled to the fruits of your actions. Never consider yourself to be the cause of the results of your activities, nor be attached to inaction.

Bhagavad Gita: Chapter 2, Verse 22

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय।

नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णा।

न्यन्यानि संयाति नवानि देही ।।

जैसे मनुष्य जीर्ण वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को धारण करता है, वैसे ही देही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है।।

 Translation : As a person sheds worn-out garments and wears new ones, likewise, at the time of death, the soul casts off its worn-out body and enters a new one.

Chapter 4, Verse 7-8:

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥

जब जब धरती पर धर्म का पतन और अधर्म में वृद्धि होती है तब उस समय मैं पृथ्वी पर अवतार लेता हूँ।

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।

धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥

भक्तों का उद्धार और दुष्टों का विनाश करने और धर्म की मर्यादा पुनः स्थापित करने के लिए मैं प्रत्येक युग में प्रकट होता हूँ।

Translation: Whenever there is a decline in righteousness and an increase in unrighteousness, at that time I manifest myself on earth. To protect the righteous, to annihilate the wicked, and to reestablish the principles of dharma, I appear millennium after millennium.

Chapter 6, Verse 5:

उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।

आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥

मन की शक्ति द्वारा अपना आत्म उत्थान करो और स्वयं का पतन न होने दो। मन जीवात्मा का मित्र और शत्रु भी हो सकता है।

Translation: Let a man lift himself by himself; let him not degrade himself; for the Self alone is the friend of oneself, and the Self alone is the enemy of oneself.

Chapter 9, Verse 22:

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।

तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥

किन्तु जो लोग सदैव मेरे बारे में सोचते हैं और मेरी अनन्य भक्ति में लीन रहते हैं एवं जिनका मन सदैव मुझमें तल्लीन रहता है, उनकी जो आवश्यकताएँ होती हैं उन्हें मैं पूरा करता हूँ और जो कुछ उनके स्वामित्व में होता है, उसकी रक्षा करता हूँ।

Translation: To those who are constantly devoted and who worship Me with love, I give the understanding by which they can come to Me.

Chapter 9, Verse 14:

सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः।

नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते॥

मेरी दिव्य महिमा का सदैव कीर्तन करते हुए दृढ़ निश्चय के साथ विनय पूर्वक मेरे समक्ष नतमस्तक होकर वे निरन्तर प्रेमा भक्ति के साथ मेरी आराधना करते हैं।

Translation: Always chanting My glories, endeavoring with great determination, bowing down before Me, these great souls perpetually worship Me with devotion.

Chapter 9, Verse 30-31:

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।

साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥

यदि महापापी भी मेरी अनन्य भक्ति के साथ मेरी उपासना में लीन रहते हैं तब उन्हें साधु मानना चाहिए क्योंकि वे अपने संकल्प में दृढ़ रहते हैं।

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।

कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति।।

वे शीघ्र धार्मात्मा बन जाते हैं और चिरस्थायी शांति पाते हैं। हे कुन्ती पुत्र! निडर हो कर यह घोषणा कर दो कि मेरे भक्त का कभी पतन नहीं होता।

Translation: Even if the most sinful worships Me with unwavering devotion, he too must be considered righteous, for he has rightly resolved.

Chapter 18, Verse 66:

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।

अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:।।

सभी प्रकार के धर्मों को त्याग दो और केवल मेरी शरण में आ जाओ। मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूंगा; डरना मत।

Translation: Abandon all varieties of religion and just surrender unto Me. I shall deliver you from all sinful reactions. Do not fear.

सनकादि ऋषियों का एक सिद्ध एवं 
चमत्कारी मंत्र-  हरि शरणम

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