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Poem and Hymn of the Dark & New Age - Era.

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मैंने देखा वह युग..." (अंधकार युग की कविता) मैंने देखा वह युग..." (अंधकार युग की कविता) मैंने देखा एक ऐसा काल, जहाँ मन था काला, हृदय विकराल। जहाँ हृदयों पर पत्थर का बोझ, प्रेम भी बन गया सुख-संपदा की खोज। न था कोई सच्चा अपनापन, हर चेहरा दिखता औपचारिक जन। माताएँ खुद ममता मिटाएँ, पिता भी अपना स्नेह भुलाएँ। राजा बने निर्दय अत्याचारी, ताक़त के मद में मस्त सब अधिकारी। झूठ छलकता हर आदेश में, अपराध छिपा हर वेश-भेष में। निरपराध बंदीगृह में सड़ते, दोषी महलों में निर्भय हँसते। न्याय बना एक महा-तमाशा, जनता ठगी, खो बैठी आशा। क्रूरता मस्तक ऊँचा उठाए, दया कोने-कोने में कँपकँपाए। श्रद्धा, भक्ति बने मिथ्याचार, भक्त सहें उपहास बारंबार। जो हाथ जोड़ें, वे अपमानित हों, जो सत्य बोलें, वे प्रताड़ित हों। मैंने देखा पतन का वह दृश्य, जहाँ पिस रहा था ईश्वर का शिष्य। पर शोक के उस गहरे क्षण में, एक दीप जला तम के घन में। ईश्वर स्वयं धरा पर आए, घावों पर आशा के फूल खिलाए। ईश्वर को देख मैं रो पड़ा, वो बोले — “मत रो, देख, मैं आ गया। अब पीड़ा की यह समय जाएगी, सत्य की नयी सुबह आएगी। छल-कपट का पर्दा हटेगा, धर्म ...

Statecraft and Spirituality

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साधनां यः करोति सः साधुः। स्वार्थबुद्धिहीनः यः सः साधुः॥ सत्कर्मिणः सदा च सः साधुः। निर्लिप्तताहीनः यः सः साधुः॥ ★   Statecraft and Spirituality Governments should not engage in business, and religious organizations should refrain from commercial ventures. When either strays from its core purpose, both risk losing credibility and the trust of the people. The fundamental role of government is governance and public welfare, sustained through transparent taxation. The mission of a religious organization is to offer spiritual guidance and nurture community well-being, upheld by voluntary donations and self-reliance. Blurring these boundaries erodes ethics, undermines accountability, and compromises the original missions of both institutions. This principle is echoed in the wisdom of ancient texts: Governance (राजधर्म) is meant to uphold justice and dharma, not to earn profit. Religion (धर्म) is for spiritual upliftment, not commerce. These timeless insights remind us that when power an...

What is Dharma?

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Dharma.  Dharma is the moral, ethical, and spiritual law that upholds both the individual's life and the universal order. It is not merely about ritual or external conduct—it encompasses the inner orientation of truth, compassion, self-restraint, and devotion. According to Śrīmad-Bhāgavatam (1.2.6):"The highest or supreme dharma of all human beings is that which leads to loving devotion (bhakti) toward the Supreme Lord, who is beyond material perception (Adhokṣaja).Such devotion must be selfless (ahaitukī) and uninterrupted (apratihatā).Only through this pure and unwavering devotion does the soul attain complete peace and true satisfaction." According to the Śrīmad-Bhāgavatam (Canto 7, Chapter 11, Verses 8–12), Nārada Muni outlines several characteristics of dharma, which form the foundation of righteous conduct   ( सदाचार).   १. दारिद्र्यदोषः दारिद्र्येण कुलं विनश्यति,दारिद्र्यात् लज्जा विनश्यति। लज्जानष्टे धर्मो नश्यति,धर्मे नष्टे सर्वं नश्यति॥ २. क्रोधदोषः क्रोधात...

The Term "Bhagwat" – Meaning and Contexts.भगवत्" (संस्कृत: भगवत्) शब्द का अर्थ।

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The Term "Bhagwat" – Meaning and Contexts The term "Bhagwat" (also spelled Bhagavata, Bhagwat, or Bhagavatha) is derived from the Sanskrit word "Bhagavat" (भगवत्). शब्द: भगवत् (स्त्रीलिंग: भगवती) श्रेणी: विशेषण/संज्ञा (संदर्भानुसार) विभक्ति: प्रायः विशेषण के रूप में प्रयुक्त धातु-सम्बंध: "भग" + "वत्" अर्थ: ऐश्वर्ययुक्त: जिसमें "भग" अर्थात् ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान, वैराग्य आदि दिव्य गुण उपस्थित हों। ईश्वर: परमात्मा, सर्वशक्तिमान सत्ता, भगवान। स्त्रीलिंग रूप (भगवती): देवी, शक्तिरूपा ईश्वरी। विशेष विवरण: "भग" का अर्थ विष्णु पुराण के अनुसार छह ऐश्वर्यों — ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान, और वैराग्य — से है। "भगवत्" वह है जिसमें ये सभी गुण हों। प्रयोग: भगवद्गीता: भगवान (कृष्ण) द्वारा कही गई गीता। भगवती: ऐश्वर्ययुक्ता देवी; शक्ति का स्त्रीलिंग स्वरूप। भगवत्कृपा: ईश्वर की कृपा। भगवद्भक्तिः: ईश्वर के प्रति भक्ति या श्रद्धा। 1. Literal Meaning: Bhagavat (भगवत्) means “divine”, “of the Bhagavān (God)”, or “belo...

जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय अवस्था:

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जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति भारतीय वेदांत दर्शन में चेतना के तीन प्रमुख अवस्थाएँ मानी जाती हैं। इन्हें "अवस्था त्रय" कहा जाता है। अद्वैत वेदांत और मंडूक्य उपनिषद में इनका विशेष रूप से वर्णन किया गया है। जाग्रत, स्वप्न,  सुषुप्ति और तुरीय अवस्था: 1. जाग्रत अवस्था (Wakeful State) यह वह अवस्था है जिसमें हम बाह्य जगत का अनुभव करते हैं। जाग्रत अवस्था में जीव स्वयं को स्थूल शरीर से पहचानता है तथा बाह्य इन्द्रियों के माध्यम से स्थूल वस्तुओं का अनुभव करता है। इस अवस्था में जीव को विश्व कहा जाता है। इस अवस्था में हमारी इंद्रियाँ सक्रिय रहती हैं और मन बाहरी वस्तुओं से जुड़ा रहता है। इस अवस्था में व्यक्ति कर्म करता है और उनके फल भोगता है। 2. स्वप्न अवस्था (Dream State) इस अवस्था में बुद्धि जाग्रत अवस्था से प्राप्त वासनाओं (संस्कारों) के साथ कर्ता की भूमिका ग्रहण करके सक्रिय होती है। इस अवस्था में इन्द्रियाँ निष्क्रिय रहती हैं। अज्ञान, इच्छा और पिछले कर्मों के प्रभाव में, जाग्रत अवस्था के संस्कारों से युक्त मन विभिन्न विषयों का निर्माण करता है। यह वह अवस्था है जिसमें व्यक्ति जाग्रत अवस्था...

ईश्वर प्राप्ति के लक्षण।

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  शिशुरूपेण भगवान् रेममाणो जगत्पतिः। आत्मनो निजरूपं तु प्रकाशयति भक्तये॥ ईश्वर प्राप्ति के लक्षण। ईश्वर प्राप्ति (ईश्वरप्राप्ति) के कुछ सामान्य लक्षण होते हैं, जो विभिन्न धर्मों और आध्यात्मिक मार्गों के अनुसार भिन्न हो सकते हैं। हालांकि, कुछ सामान्य लक्षण इस प्रकार हैं— 1.भगवान का नाम लेते ही आँखों से आँसू छलक पड़ते हैं, आवाज भर आती है, और शरीर भक्ति के आनंद से पुलकित हो उठता है।   2.अहंकार समाप्त हो जाएगा। अखंड शांति और आनंद की अनुभूति होगी। 3."असीम प्रेम और करुणा का अनुभव होगा। भगवान की शरण में मनन और चिंतन करने से अश्रु बहने लगेंगे।" 4. भगवान का मनन और चिंतन प्रबल होगा, फलस्वरूप अन्यमनस्कता आएगी। सांसारिक आसक्तियों (माया-मोह) से मुक्ति मिल जाएगी। 5.चेतना ऊँचे स्तर पर पहुँच जाएगी और समभाव विकसित होगा। 6.सुख-दुख, जय-पराजय, लाभ-हानि—सब कुछ समभाव से स्वीकार करने की क्षमता विकसित होगी। 7.आत्म-साक्षात्कार और ईश्वर का प्रत्यक्ष अनुभव होगा। 8.जो व्यक्ति ईश्वर को प्राप्त करता है, वह केवल विश्वास नहीं करता बल्कि प्रत्यक्ष रूप से दिव्य उपस्थिति का अनुभव करता है। 9.इच्छाएँ और इंद्रिय ...

What Happens After Death? What is the Soul (Ātman)?

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जन्म‑मरण का चक्र भयंकर, विधिलेख अनुसार चले निरंतर; जन्म‑मृत्यु सब पूर्व निर्धारित, कोई न कर सके इसमें अंतर। जीव जो बीज बोता पूर्व में, वही आज फल बन जाता है, कर्मों की इस निर्लिप्त गति से, कोई नहीं बच पाता है। न कोई जल्दी आ सकता, न विलम्ब से जा सकता है, कालचक्र की इस रेखा को, केवल विधाता देख सकता है। An enlightened being or self-aware person  does not fear death because they know  that death is not the end of life,  but rather a new phase and a fresh  beginning in the soul's journey. 🔯 What is the Soul (Ātman)? What is the Supreme Soul (Paramātman)? The Soul (Ātman): The soul is generally referred to as an invisible entity that resides independently within the  body. According to the Bhagavad Gita (2.20): “This soul is neither born nor does it ever die, nor having once existed, does it cease to be. This soul is birthless, eternal, imperishable, and timeless. Even when the body is destroyed, the soul is not destroyed.” The Supreme Soul (Paramātman): The term Para...